Tuesday, August 26, 2008

कठपुतली

बचपन में अक्सर देखा है,
एक खेल
एक अजीब सा खेल
कभी गुदगुदाता
कभी फुसलाता
नादान और बेपरवाह
गुड्डे गुडियों का खेल
कठपुतली का खेल
धीरे धीरे
जब छुटपन की वो अल्हड समझ
वक्त की आंच से तपकर
सयानेपन की सरहद में दाखिल होती है
बचपन के वो सच
जो आधे खुले थे
आधे बंद थे
धीरे धीरे शक के परदे से निकलकर
मुकम्मल होते हैं
तब समझ आता है
खेल
वो वही अजीब खेल
वो गुड्डा गुडिया
वो कठपुतली
और कोई नही इन्सान ख़ुद है
जो दूसरी कठपुतली के
इशारों पर
उम्र भर
खुली जागती आँखों पर
दौलत की पट्टी बांधकर
नाचता है
नचाया जाता है
कानून की तरह

1 comment:

  1. jiwan ki sachai ko bayan karne wali chand pankatiyan .....ho sakata h logo ko galat lage magar sachai yehi h .

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