Tuesday, August 26, 2008

धुआं

एक रोज
धुंधली सुबह में
कहीं
किसी बात पर खफा होकर
हवा ने आकर
कान में कुछ तपती
आंच राखी
लगा की आज फिजा इतनी गर्म क्यूँ है
धुआं धुआं सा
अजब सा क्यूँ है
फिर कुछ रूककर
कुछ कहा
आज फिर हुआ है
विस्फोट
भरे बाजार में
कुछ खाक उडी है आज फिर
तिनका तिनका होकर
मै सहमा
घबराया
देखा तो क्षितिज के उस पार
अजब सन्नाटा था
फिर महसूस हुआ
उस खामोशी में भी
धमाकों और चीखों की गूंज बाकि थी
डर डर कर
मैंने झाँका
इधर उधर
नीचे ऊपर
फिर खोजकर पाया की
मेरे अन्दर भी
एक विस्फोट हुआ है
कुछ लाशें जल रही है
जिसका धुआं
लम्हा डर लम्हा
और स्याह हो रहा है
धमाके की चिंगारी
अब तक आँखों में जल रही है
फिर
खिड़की से झांक कर देखा
तो लगा की एक घर अभी भी भभक रहा है
लाशें अभी भी जल रही है
लोग कहते है
ये उसका घर है
जिसने धमाका किया था

3 comments:

  1. who is the one whose house is burning?

    ReplyDelete
  2. kavita bahut achanak likhi thi...ghar unke to jale hain hi jo nirdosh the lekin ghar uska bhi jalega kabhi na kabhi jo vastav me doshi hai, kyunki bam phodna koi tareeka nahi hai kisi bhi vichardhara me kisi bhi tarah ke vidroh ka.....

    ReplyDelete
  3. kavita achha h............lekin un gharo ko bachaana bhi h............

    ReplyDelete